हरे –हरे पत्ते कुड़कुड़ा रहे हैं,
मस्त है मौसम की मौज़ में, या ठण्ड लग रही है,
ये बात किससे पुछूँ?
नज़दीक जब गया मैं, और कान जो लगाए,
फिर भी समझना समझ से परे था कि
ये जो गूंन उठ रही है, ये दाँत कड़कड़ाने के हैं या पेड़ों के गुनगुनाने के।
जो कुछ भी हो, जहाँ भी हो, इससे कुछ मतलब नहीं,
पर संगीत बन रहा है, संग ही मतलब भी निकल रहा है,
मतलब उस परिंदे के लिए है, जो धुन को दूर से ही सुनकर
खुद राग बन गया है।
इस पेड़ की इक शाखा से लटका खानाबदोश
खुद का घ्ररौंदा बुन रहा है।
मेघना कोथारी
VII ‘A’